मधुबनी पेंटिंग: बिहार के गाँवों से निकली एक विश्व प्रसिद्ध कला
रंगों की एक ऐसी दुनिया जो कि, जहाँ हर रेखा एक कहानी कहती है और हर प्रतीक का एक गहरा अर्थ होता है। यह दुनिया में है मधुबनी चित्रकला की, एक जिसे ‘मिथिला पेंटिंग’ के नाम से भी जाना जाता है। बिहार के मिथिला क्षेत्र की धूल-मिट्टी में जन्मी यह लोक कला आज अपनी सादगी, जीवंत रंगों और गहरी सांस्कृतिक जड़ों के कारण पूरी दुनिया में अपनी पहचान बना चुकी है। यह महज़ एक चित्रकला नहीं, बल्कि एक परंपरा, एक साधना और पीढ़ियों से चली आ रही एक विरासत है, जिसे विशेष रूप से महिलाओं ने अपने हाथों से सँजोकर रखा है।
पौराणिक जड़ों से जुड़ा इतिहास
मधुबनी कला की जड़ें कितनी गहरी हैं, इसका अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इसका संबंध रामायण काल से जोड़ा जाता है। मान्यता के अनुसार, जब मिथिला के राजा जनक ने अपनी पुत्री सीता का विवाह भगवान राम से तय किया, तो उन्होंने अपने पूरे राज्य के कलाकारों को आदेश दिया कि वे इस शुभ अवसर पर घरों की दीवारों और आँगनों को चित्रों से सजा दें। इन चित्रों में विवाह के दृश्य, देवी-देवता और प्रकृति के सुंदर चित्रण शामिल थे। यहीं से इस कला की शुरुआत मानी जाती है, जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी माँ से बेटी तक मौखिक रूप से और अभ्यास के माध्यम से हस्तांतरित होती रही।
सदियों तक यह कला मिथिला क्षेत्र के गाँवों की दीवारों और आँगनों तक ही सीमित रही। इसे खास मौकों, जैसे- पूजा, विवाह, और त्योहारों पर बनाया जाता था। यह केवल सजावट नहीं, बल्कि एक पवित्र अनुष्ठान का हिस्सा थी।
दीवारों से कागज़ तक का ऐतिहासिक सफ़र
दुनिया के लिए इस अनूठी कला की खोज एक प्राकृतिक आपदा के बाद हुई। साल 1934 में बिहार में एक विनाशकारी भूकंप आया। जब ब्रिटिश अधिकारी विलियम जी. आर्चर राहत और पुनर्निर्माण कार्यों का जायजा लेने मिथिला क्षेत्र पहुँचे, तो टूटे हुए घरों की भीतरी दीवारों पर बनी अद्भुत चित्रकारी ने उनका ध्यान खींचा। वे इन चित्रों की सादगी और कलात्मकता से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने इनकी तस्वीरें खींची और इन पर लेख लिखे। यह पहली बार था जब मधुबनी कला बाहरी दुनिया के सामने आई।


मधुबनी पेंटिंग
लेकिन इस कला को असली पहचान 1960 के दशक में मिली, जब भारत सरकार ने अकाल प्रभावित क्षेत्रों में महिलाओं को आय का एक वैकल्पिक स्रोत प्रदान करने के लिए इस कला को कागज़ पर उतारने के लिए प्रोत्साहित किया। कलाकारों, विशेषकर महिलाओं ने अपनी पारंपरिक कला को कागज़ पर उतारना शुरू कर दिया, जिससे इसे व्यावसायिक बाज़ार मिला और यह कला दीवारों की सीमा लांघकर दुनिया भर की आर्ट गैलरियों तक पहुँच गई।
मधुबनी पेंटिंग की प्रमुख विशेषताएँ और शैलियाँ
मधुबनी कला अपनी कुछ खासियतों के कारण सबसे अलग दिखती है:
• द्वि-आयामी (2D) चित्र: इन चित्रों में गहराई या तीसरा आयाम (3D) नहीं दिखाया जाता। सभी आकृतियाँ सपाट होती हैं।
• ज्यामितीय पैटर्न और दोहरी रेखाएँ: चित्रों की बाहरी सीमा (बॉर्डर) आमतौर पर दोहरी रेखाओं से बनाई जाती है और खाली जगहों को भरने के लिए जटिल ज्यामितीय पैटर्न या फूलों-पत्तियों का उपयोग किया जाता है।
• बड़ी और भावपूर्ण आँखें: पात्रों की आँखें बहुत बड़ी और मछली के आकार की बनाई जाती हैं, जो उनकी एक विशेषता बताती है।
• प्राकृतिक रंगों का प्रयोग: पारंपरिक रूप से इसमें केवल प्राकृतिक रंगों का उपयोग होता था। पीला रंग हल्दी से, नीला रंग नील से, नारंगी पलाश के फूलों से, काला रंग काजल या जले हुए गोबर से, और हरा रंग पत्तियों से बनाया जाता था।
• कोई खाली जगह नहीं: मधुबनी पेंटिंग की एक पहचान यह है कि कलाकार कैनवास पर कोई भी जगह खाली नहीं छोड़ते। वे हर कोने को बारीक पैटर्न, जानवरों, पक्षियों या फूलों से भर देते हैं।
मुख्य रूप से मधुबनी पेंटिंग की पाँच शैलियाँ (घराना) प्रचलित हैं:
• भरनी (Bharni): इसका अर्थ है ‘भरना’। इस शैली में चित्रों की बाहरी रेखा खींचकर उन्हें चटख रंगों से भर दिया जाता है। इसमें मुख्य रूप से लाल, पीले, और नारंगी रंगों का प्रयोग होता है और विषय देवी-देवता होते हैं।
• कचनी (Katchni): इसका अर्थ है ‘रेखाचित्र’। इस शैली में रंगों का प्रयोग बहुत कम होता है और ज़ोर बारीक रेखाओं पर दिया जाता है। इसमें जटिल पैटर्न और महीन लाइन वर्क देखने को मिलता है।
• तांत्रिक (Tantrik): इसमें हिंदू धर्म की तांत्रिक परंपराओं से जुड़े प्रतीक और देवी-देवताओं, जैसे- माँ दुर्गा और काली, का चित्रण होता है। इसमें प्रतीकात्मकता बहुत गहरी होती है।
• गोदना (Godna): यह शैली शरीर पर गुदवाए जाने वाले टैटू से प्रेरित है। इसमें सरल आकृतियों को गोलाकार पैटर्न में दोहराया जाता है। इसे बनाने के लिए अक्सर बांस की कलम और काजल का इस्तेमाल होता है।
• कोहबर (Kohbar): यह विशेष रूप से विवाह के अवसर पर दूल्हा-दुल्हन के कमरे (कोहबर घर) में बनाई जाती है। इसमें प्रेम, प्रजनन और समृद्धि के प्रतीक, जैसे- कमल, बांस, मछली, तोता और कछुआ, प्रमुखता से चित्रित किए जाते हैं।
महिला सशक्तिकरण और सामाजिक संदेश का माध्यम
मधुबनी कला केवल एक कला नहीं, बल्कि महिला सशक्तिकरण का एक जीवंत प्रतीक है। इसने मिथिला क्षेत्र की हजारों महिलाओं को आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाया है। जिन महिलाओं को कभी घर से बाहर निकलने की अनुमति नहीं थी, आज वे राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सम्मानित कलाकार हैं। पद्म श्री से सम्मानित जगदंबा देवी, सीता देवी, और गंगा देवी जैसी कलाकारों ने इस कला को विश्व मंच पर स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
समय के साथ, मधुबनी कलाकारों ने अपनी कला को केवल पौराणिक कथाओं तक सीमित नहीं रखा, बल्कि इसे सामाजिक संदेश देने का एक शक्तिशाली माध्यम भी बनाया है। आज की पेंटिंग्स में आपको कन्या भ्रूण हत्या, दहेज प्रथा, शिक्षा का महत्व और पर्यावरण संरक्षण जैसे समकालीन विषय भी देखने को मिलेंगे। यह इस कला की जीवंतता और प्रासंगिकता को दर्शाता है।
निष्कर्ष: एक कला से बढ़कर
मधुबनी पेंटिंग बिहार के एक छोटे से कोने से शुरू होकर आज वैश्विक कला मंच पर चमक रही है। यह यात्रा सादगी की शक्ति, परंपरा के सम्मान और नारी शक्ति के अथक प्रयासों की कहानी है। यह हमें सिखाती है कि कला केवल मनोरंजन या सजावट का साधन नहीं है, बल्कि यह संस्कृति का आईना, समाज का स्वर और भावनाओं की भाषा है।
जब हम इस कला को अपनाते हैं, तो हम केवल एक सुंदर पेंटिंग नहीं खरीदते, बल्कि हम उस कलाकार की मेहनत, उस परंपरा की गहराई और उस विरासत को सम्मान देते हैं जो सदियों से जीवित है। आइए, इस अनमोल धरोहर को सहेजें और उन गुमनाम कलाकारों का समर्थन करें जो अपनी कला से भारत की सांस्कृतिक गाथा को दुनिया भर में फैला रहे हैं।
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