त्योहार और हस्तशिल्प: एक अटूट बंधन

त्योहार और हस्तशिल्प: एक अटूट बंधन

त्योहार की और कारीगर के हाथ से बनाया गया भारतीय हस्तशिल्प का जीवंत उत्सव

भारत की आत्मा उसके त्योहारों में बसती है। ये केवल कैलेंडर की तारीखें नहीं, बल्कि हमारी संस्कृति, आस्था और सामाजिक जीवन का धड़कता हुआ दिल हैं। जब हम त्योहारों के बारे में सोचते हैं, तो मन में रंगों, रोशनी, संगीत, व्यंजनों और उत्साह का एक सजीव चित्र उभरता है। लेकिन इस चित्र को पूरा करने वाला एक सबसे महत्वपूर्ण तत्व है— हमारे कारीगरों के हाथों से जन्मी कला, यानी भारतीय हस्तशिल्प। त्योहार और हस्तशिल्प का रिश्ता कोई व्यापारिक समझौता नहीं, बल्कि एक ऐसा अटूट, सहजीवी और पवित्र बंधन है, जहाँ एक के बिना दूसरा अधूरा और प्राणहीन है। यह एक ऐसा ताना-बाना है, जिसमें आस्था के धागों को कला के रंगों से बुना जाता है।

त्योहार और हस्तशिल्प: एक अटूट बंधन

इस रिश्ते की गहराई को समझने के लिए हमें इसे कई दृष्टिकोणों से देखना होगा। यह रिश्ता आर्थिक भी है, धार्मिक भी, सांस्कृतिक भी और सामाजिक भी।

• आर्थिक धुरी: त्योहार भारतीय हस्तशिल्पियों के लिए सबसे बड़ा बाज़ार हैं। ये वे अवसर होते हैं जब कारीगरों की साल भर की मेहनत को उसका सबसे बड़ा प्रतिफल मिलता है। कुम्हार के चाक की गति तेज हो जाती है, बुनकर के करघे पर धागे नाचने लगते हैं, और मूर्तिकार की छेनी मिट्टी में प्राण फूंकने लगती है। दिवाली, दुर्गा पूजा, गणेश चतुर्थी जैसे बड़े त्योहार एक विशाल असंगठित क्षेत्र को रोज़गार देते हैं, जिसमें लाखों परिवार सीधे तौर पर जुड़े होते हैं। यह एक ऐसी मौसमी अर्थव्यवस्था है जो गाँवों और कस्बों की जड़ों को सींचती है।

• सांस्कृतिक और धार्मिक ताना-बाना: कई हस्तशिल्प वस्तुएँ केवल सजावट की सामग्री नहीं, बल्कि अनुष्ठानों का अनिवार्य हिस्सा हैं। उनके बिना पूजा अधूरी मानी जाती है। मिट्टी का दीया केवल रोशनी नहीं, बल्कि पंचतत्व का प्रतीक है। पूजा की थाली पर की गई मीनाकारी केवल डिज़ाइन नहीं, बल्कि पवित्रता का भाव है। छठ पूजा में बांस का सूप और दौरा केवल बर्तन नहीं, बल्कि सूर्य देव को अर्घ्य देने का माध्यम है। इस तरह, हस्तशिल्प धर्म और परंपरा को मूर्त रूप देते हैं।

• परंपरा का संरक्षण: त्योहार वे मंच हैं जहाँ सदियों पुरानी कलाएं जीवित रहती हैं और एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक हस्तांतरित होती हैं। अगर त्योहार न हों, तो शायद कई कलाएं समय के साथ विलुप्त हो जाएं। हर त्योहार अपने साथ एक विशेष कला को प्रमुखता देता है, जिससे उस कला के कारीगरों को प्रोत्साहन मिलता है और वे अपनी विरासत को अगली पीढ़ी को सौंपने के लिए प्रेरित होते हैं।

दिवाली: हस्तशिल्प का महा-पर्व – एक विस्तृत दृष्टिकोण

यदि हमें इस रिश्ते का सबसे जीवंत और भव्य उदाहरण देखना हो, तो दिवाली से बेहतर कुछ नहीं। दिवाली सिर्फ एक त्योहार नहीं, यह कारीगरों के लिए आशा, समृद्धि और उत्सव का पर्याय है। आइए, दिवाली में उपयोग होने वाले हस्तशिल्प की दुनिया में गहराई से उतरें:

1. कुम्हार के चाक पर घूमती दिवाली की आत्मा: मिट्टी के दीये

दिवाली की कल्पना बिना दीयों के नहीं की जा सकती। जब शहर बिजली की लड़ियों से जगमगा रहे होते हैं, तब भी एक मिट्टी के दीये की लौ में જે सुकून, पवित्रता और परंपरा का एहसास होता है, वह अतुलनीय है। यह दीया ‘अंधकार पर प्रकाश की विजय’ का सबसे शक्तिशाली प्रतीक है।

इस एक छोटे से दीये के पीछे कुम्हार की महीनों की मेहनत छिपी होती है। दिवाली से बहुत पहले, कुम्हार तालाबों और खेतों से विशेष प्रकार की मिट्टी इकट्ठा करते हैं, उसे कूटते हैं, छानते हैं और पानी मिलाकर गूंथते हैं। फिर शुरू होती है चाक की साधना। घूमते चाक पर मिट्टी का लोथ कारीगर के कुशल हाथों के स्पर्श से पलक झपकते ही एक सुंदर दीये का आकार ले लेता है। इसके बाद इन दीयों को धूप में सुखाया जाता है और फिर ‘आवा’ (भट्ठी) में तपाकर पकाया जाता है। मिट्टी की सौंधी महक और पके हुए दीयों की खनक, कुम्हार के घर आने वाली लक्ष्मी के आगमन का संकेत होती है। आज के दौर में, साधारण दीयों के अलावा कारीगर अपनी कला का प्रदर्शन करते हुए रंग-बिरंगे, डिज़ाइनर और कलात्मक दीये भी बना रहे हैं, जो उनकी रचनात्मकता को एक नया आयाम देते हैं।

2. आस्था को आकार देते हाथ: लक्ष्मी-गणेश की मूर्तियाँ

दिवाली पूजन का केंद्र होती हैं—देवी लक्ष्मी और भगवान गणेश की मूर्तियाँ। इन मूर्तियों में केवल मिट्टी या प्लास्टर नहीं होता, बल्कि मूर्तिकार का समर्पण और भक्त की आस्था भी मिली होती है। बंगाल, उत्तर प्रदेश और राजस्थान के कारीगर इस कला में माहिर हैं। वे मिट्टी को आकार देते हैं, उसे सुखाते हैं और फिर शुरू होता है रंगों का खेल। मूर्ति का हर अंग, वस्त्रों की हर सिलवट और आभूषणों की हर बारीक नक्काशी को बड़ी ही तल्लीनता से रंगा जाता है। सबसे महत्वपूर्ण क्षण होता है मूर्तियों की आँखें बनाना, जिसे ‘चक्षु-दान’ की भावना से किया जाता है, मानो कलाकार अपनी कला से उनमें प्राण फूंक रहा हो। जब कोई भक्त इन मूर्तियों को घर लाता है, तो वह अपने साथ उस कारीगर के हुनर और उसकी प्रार्थना को भी ले आता है।

3. स्वागत और समृद्धि का प्रतीक: सजावटी तोरण

भारतीय घरों में दरवाज़े पर तोरण या बंधनवार लगाने की परंपरा सदियों पुरानी है। यह केवल सजावट नहीं, बल्कि घर में सुख-समृद्धि और सकारात्मक ऊर्जा के प्रवेश का आमंत्रण है। दिवाली पर इसका महत्व और भी बढ़ जाता है, क्योंकि माना जाता है कि इससे देवी लक्ष्मी का स्वागत होता है।

पारंपरिक रूप से आम के पत्तों और गेंदे के फूलों से बनने वाले तोरण के अलावा, हस्तनिर्मित तोरणों की एक विशाल दुनिया है। गुजरात और राजस्थान के कारीगर कपड़े पर शीशे, मोतियों और रंगीन धागों से अद्भुत कढ़ाई करके तोरण बनाते हैं। कहीं लकड़ी पर नक्काशी करके तोरण बनाए जाते हैं, तो कहीं ऊन और कौड़ियों का प्रयोग होता है। यह कला अक्सर ग्रामीण महिलाओं और स्वयं-सहायता समूहों को आर्थिक रूप से सशक्त बनाती है, जो अपने घरों में बैठकर इन खूबसूरत कलाकृतियों को तैयार करती हैं।

4. आकाश को रोशन करती कला: रंगीन कंदील

दिवाली पर घर के बाहर कंदील (आकाशदीप) लटकाने की परंपरा उत्सव में चार चाँद लगा देती है। यह सिर्फ रोशनी का स्रोत नहीं, बल्कि पूर्वजों को रास्ता दिखाने और ईश्वर तक अपनी खुशियों का संदेश पहुंचाने का एक माध्यम भी माना जाता है। पारंपरिक कंदील बांस की पतली तीलियों का ढाँचा बनाकर उस पर रंगीन कागज़ चिपका कर बनाए जाते हैं। इस साधारण सी दिखने वाली प्रक्रिया में गजब का कौशल और धैर्य लगता है। फ्रेम को सही आकार देना, कागज़ को सफाई से काटना और चिपकाना, और अंत में उसमें झालर लगाना—यह सब हाथ की कला का बेहतरीन नमूना है।

दिवाली से परे: भारत के अन्य त्योहारों में कला का संगम

यह अद्भुत रिश्ता केवल दिवाली तक सीमित नहीं है। भारत का हर त्योहार किसी न किसी हस्तकला को अपने आगोश में समेटे हुए है:

• दुर्गा पूजा: पश्चिम बंगाल में ‘कुमोरटुली’ के मूर्तिकार माँ दुर्गा की विशाल और भव्य प्रतिमाओं का निर्माण करते हैं, जो कला और भक्ति का शिखर है। इसके अलावा, ‘शोलापिथ’ (एक जलीय पौधे) से बने नाजुक सजावटी सामान और मुकुट इस त्योहार की पहचान हैं।

• रक्षाबंधन: यह त्योहार पूरी तरह से हस्तशिल्प पर आधारित है। रेशम के धागों से लेकर, ज़रदोज़ी, कुंदन और मोतियों से सजी राखियाँ लाखों महिलाओं और छोटे कारीगरों द्वारा घर पर ही बनाई जाती हैं, जो उनकी रचनात्मकता और आय का स्रोत बनती हैं।

• नवरात्रि और गरबा: गुजरात में नवरात्रि के दौरान पहने जाने वाले पारंपरिक परिधान—शीशे की कढ़ाई वाले घाघरा-चोली, बंधनी के दुपट्टे—हस्तशिल्प के बेहतरीन उदाहरण हैं। साथ ही, गरबा खेलने के लिए सजाई गई डांडिया भी हाथ से ही तैयार की जाती हैं।

• छठ पूजा: बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश का यह महापर्व स्थानीय बांस की कारीगरी के बिना अधूरा है। बांस से बने सूप, दौरा और टोकरियाँ पूजा का अभिन्न अंग हैं, जो इस क्षेत्र की सदियों पुरानी कला को जीवित रखे हुए हैं।

आधुनिक चुनौतियाँ और भविष्य की राह

त्योहार और हस्तशिल्प: एक अटूट बंधन
त्योहार और हस्तशिल्प: एक अटूट बंधन

इस खूबसूरत रिश्ते पर आज आधुनिकता की कुछ चुनौतियाँ भी मंडरा रही हैं। मशीन से बने सस्ते चीनी उत्पाद, जैसे प्लास्टिक के दीये, बैटरी वाली मोमबत्तियाँ और रेडीमेड प्लास्टिक के तोरण, पारंपरिक कारीगरों के बाज़ार को बुरी तरह प्रभावित कर रहे हैं। भागदौड़ भरी जिंदगी में लोग अक्सर आसान और सस्ते विकल्पों की ओर भागते हैं, बिना यह सोचे कि उनका यह छोटा सा निर्णय किसी कारीगर के साल भर के इंतज़ार को तोड़ सकता है।

ऐसे में हमारी भूमिका और भी महत्वपूर्ण हो जाती है। जब हम त्योहार पर एक कुम्हार से दीया, एक महिला कारीगर से तोरण, या एक मूर्तिकार से मूर्ति खरीदते हैं, तो हम केवल एक वस्तु नहीं खरीदते। हम एक परंपरा खरीदते हैं, एक कला को जीवित रखते हैं, एक परिवार की दिवाली को रोशन करते हैं और अपनी संस्कृति की जड़ों को मज़बूत करते हैं। ‘वोकल फॉर लोकल’ का नारा त्योहारों के समय सबसे अधिक प्रासंगिक हो जाता है।

त्योहार और हस्तशिल्प: एक अटूट बंधन
त्योहार और हस्तशिल्प: एक अटूट बंधन

 

अंततः, त्योहार और भारतीय हस्तशिल्प एक-दूसरे की आत्मा हैं। त्योहार हस्तशिल्प को एक मंच, एक उद्देश्य और एक बाज़ार देते हैं, तो वहीं हस्तशिल्प त्योहारों को उनकी पहचान, उनकी सुंदरता और उनका पारंपरिक स्वरूप प्रदान करते हैं। कारीगर के हाथ जब मिट्टी, धागे या रंगों को छूते हैं, तो वे केवल एक वस्तु नहीं बनाते, वे उत्सव की आत्मा को गढ़ते हैं। इसलिए, अगली बार जब आप किसी त्योहार की तैयारी करें, तो उन अनगिनत गुमनाम हाथों को ज़रूर याद करें, जिनकी कला के बिना हमारे उत्सव बेरंग और अधूरे हैं। उनका सम्मान करें, उनकी कला को खरीदें और इस अमूल्य विरासत को आने वाली पीढ़ियों के लिए जीवित रखें।

 

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